गोध्रा २००२ : धार्मिक या राजनैतिक?

[वाचनकाल : ६ मिनट] 
Religious Riots of Godhra
दंगे ऊपर से दिखने में तो समुदायों के बीच का कलह नजर आते हैं, लेकिन अंदर से वह राजनैतिक ही होते हैं। 

ज़ाहिर सी बात है दंगे मौसम में बदलाव होने से या फिर मान ले के किसी नैसर्गिक प्रक्रिया से नही उभरते। दंगा कोई प्यार-मोहब्बत की बात तो नहीं के देखते ही देखते हो जायें। दंगे तो किसी क्रांती या विकास की परिभाषा भी नहीं हो सकते। फिर भी दंगे तो होते ही हैं, इस बात से तो इन्कार नहीं किया जा सकता। दंगो को खडा होने लिये हिंसा और नफरत की जो बुनियाद चाहिये होती है वह कोई धरम तो नही सिखाता। साफ तौर पर कहे तो जो दंगे असल में दिखने में तो धार्मिक नजर आते हैं, लेकिन अंदर से वह राजनैतिक ही होते हैं . . .

भारत में दंगे होना अब वैसे तो आम बात बन गई है। लेकिन भारत के लिए यह कोई नही बात नही है। ‘उपिंदर सिंह’ अपनी किताब में लिखती है कि प्राचीन एवं मध्ययुगीन काल में भारत में बहुत ज्यादा पैमाने पर राजकीय दंगो को देखा गया। राजकीय दंगे याने राजव्यवस्था से प्रेरित ऐसा माहौल जो एक दुसरे के खिलाफ हिंसा करे।
भारत को स्वतंत्रता ‘दो-राष्ट्र संकल्पना’ से मिली। एक राष्ट्र हिंदूओं के लिए और दुसरा राष्ट्र मुसलमानों के लिए। यह विभाजन राजनैतिक नेताओं और ब्रिटिश शासन के निर्णय से हूआ। लेकिन आम जनता के लिये यह संभव हो पाना मुश्किल था। बहुत से लोग ऐसे थे, जो अपनी जमीन, अपने पूर्वजो का घर छोडकर जाना नही चाहते थे, इस वजह से बहुत से हिंदू पाकिस्तान में रह गये और बहुत से मुसलमान भारत में रह गये। भारत का देखा जाये तो, इन दो समुदायों के बीच पूरी तरह से शांती अब तक प्रस्थापित हो नही पायी है। जिसका परिणाम कभी कबार आपसी हिंसा में हो जाता है।
वैसे तो स्वतंत्रता के बाद भारत में हजारो बार दंगे हुए। दक्षिण की तुलना में उत्तर भारत दंगो से ज्यादा प्रभावित रहा। जहा हिंदू और मुसलमान दोनो समुदाय रहते है, वहां पर दंगे होने के हालात ज्यादा बनते है। लेकिन इसमें भी कुछ अपवाद है। लखनऊ या फिर हैदराबाद जैसे शहर, आपको कभी दंगो के लिए नही सुनाई देंगे लेकिन अहमदाबाद में बहुत बार ये हो चुका है।

तो यहां पर दो प्रश्न निर्माण होते है :-
१) इतने सारे दंगे होने के बावजूद गुजरात के दंगे चर्चा में क्यों ज्यादा पाये जाते है?
२) सिर्फ कुछ ही शहर दंगो से ज्यादा पीडित कैसे हो गये?

यह समझने के लिए हमें २००२ में हूए ‘गोध्रा’ दंगों पर एक नजर डालना आवश्यक हैं।

गुजरात २००२

बाबरी मस्जिद विवाद स्वतंत्रता के पहले से ही चर्चा में था। इसका राजकीय लाभ लेने के हेतू से ही लालकृष्ण अडवाणीजीने नब्बे के दशक में रथयात्रा निकाली। इस रथयात्रा कि मांग थी ‘बाबरी मज्जिद के जगह राम मंदिर बनाया जाये’। रथयात्रा का अंत बहुत बडी विध्वंसक कृती से हुआ, जिस में बाबरी मज्जिद कि विवादास्पद वास्तू को गिराया गया। २००२ में इस घटना को दस साल हो गये थे।
फरवरी २००२ में विश्व हिंदू परिषद ने इस घटना को समर्पित १०० दिन का ‘पूर्ण आहूती यज्ञ’ करवाया, जिस में शामिल होने पुरे भारत से लोग अयोध्या में पहुंचे। इन लोगो को ‘कर सेवक’ कहा जाता था। कर याने हात और उनसे जो सेवा करे वो कर सेवक।
गुजरात से भी कई कर सेवक अयोध्या गये और यज्ञ पुरा होने के बाद साबरमती एक्सप्रेस से गुजरात आने के लिए निकले। आधे से ज्यादा एक्सप्रेस कर सेवको से ही भरी थी।
‘एसआयटी’ (SIT) की रिपोर्ट के अनुसार :-
इस ट्रेन के कोच S5 और S6 को गोध्रा में आग लगा दी गयी। इसके पीछे तीन कारण हो सकते है

१) पाकिस्तान से ‘आयएसआय’ (ISI) की साजिश।
२) गोध्रा से पहले दाहोद नाम के स्टेशन पर एक मुसलमान चाय वाला ट्रेन में चढा, जिस को ‘जय श्रीराम’ बोलने पर मजबूर किया गया और विवाद उत्पन्न हो गये।
३) बाबरी मज्जिद गिराई जाने का गुस्सा।

गोध्रा में स्टेशन पर ट्रेन रूकने के बाद परिस्थिती सामान्य थी। कई कर सेवक ट्रेन से उतरकर कुछ सामान खरीद कर फिर अंदर चले गये। गोध्रा से ट्रेन छुटते ही कई बार चैन खींच कर उसे रोकने की कोशिश की गई थी। फिर वहाँ तकरीबन हजार लोग जमा हो गये, जिन्होने कोच S5 और S6 पर पथराव किया। जब लोगो ने दरवाजे-खिडकिया बंद कर दी, तो उन दो डिब्बों को जलाया गया। इस आग में ५९ लोग मर गये।
शवों को गोध्रा अस्पताल की जगह अहमदाबाद ले जाया गया। वहा इन शवों पर ‘विश्व हिंदू परिषद’ अपना हक जताती है, क्योंकि ये सभी कर सेवक थे। लोगो को सिर्फ ये पता था कि डिब्बे को आग लगी है, लेकिन बाकी किसी भी चीज से लोग अंजान थे। विश्व हिंदू परिषद के सदस्योंने इन शवों को खुले वाहनों में रख कर अहमदाबाद में घुमाया, जिस से सभी लोगो को समझ आया की हुआ क्या है। यह बात असंतोष निर्माण कराने वाली थी। ‘आरएसएस’ (RSS) और ‘बजरंग दल’ के नेता भी क्रोधित होकर इस सभी से जुड गये, उन्ही के साथ हजारो लोक शवों के अंतिम कार्य से जुड गये। नारेबाजी और हिंसा शुरू हो गई। रिपोर्टर्स ने लाईव्ह टेलिकास्ट कर के इस हिंसा को हर घर तक पहुंचाया, जिस से ये आग और फैल गई।
यह सभी बाते SIT की रिपोर्ट में दर्ज है। अगले तीन दिनों में, सेंकडो हिंदू और मुसलमान मारे जाते है। यह दंगे शहरो तक सिमीत थे। लेकिन फिर गावों में भी हिंसा शुरू होकर, काँग्रेस के राजनीतिक नेता ‘एहसान’ और उनके सोसायटी के बहुत से परिवारों को मारकर उनके घर जला दिये जाते है। नरोदा-पाटिया गाव में बहुत से मुस्लिम मजदूर रहते थे। अफवा फैला दी जाती है कि ‘यहाँ तीन हिंदू लडकीयों का अपहरण हुआ है’। पाच हजार लोक इस गाव पर हमला कर के बहुत से मजदूरों को मार डालते है। उनके पास इतने हथियार आये कहाँ से? यह बात SIT भी ढूंढ नहीं पाई।
इस साजिश में ‘माया कोडनानी’ का नाम आता है। जिनको तुरंत ही कैबिनेट मिनिस्टर भी बना दिया गया। गुजरात शासन की तरफ से यह कहा गया कि, हमने दंगे रोकने के लिए पूरी कोशिश की लेकिन भीड़ ज्यादा होने के कारण पुलिस प्रशासन उन्हें रोकने में सफल नहीं हुई। संजीव भट्ट जो उस समय पुलिस आयुक्त थे उन्होंने कहा कि, ‘दंगे शुरू होते ही शासन के साथ चर्चा शुरू हुई लेकिन हमें निर्देश दिए गए कि यह एक्शन का रिएक्शन है और दो दिन में सब अपने आप ठीक हो जाएगा, आप बीच में ना पड़े।’
इन दंगों का अध्ययन करने नानावटी कमीशन बैठा, जिन्होंने सभी नेताओं को और संघटनाओं को दोषी नहीं पाया। कहा जाता है कि, इसके सदस्य बीजेपी से जुड़े थे इस वजह से यह हुआ।
लेकिन फिर ‘Concern Citizen Tribunal’ यह समिति जांच करने लगी जिसमें रिटायर्ड जज शामिल थे। इस समिति की रिपोर्ट आउटलुक ने पब्लिश की है। इस रिपोर्ट के अनुसार अयोध्या से ट्रेन निकलने के बाद लखनऊ में उन दो डिब्बों में कई लोग बिना टिकट के चढ़ गए थें। ट्रेन के तकरीबन बहुत से स्टेशनों पर यह पाया गया कि, इन दो डिब्बों में कर सेवक आपस में लड़ाई कर रहे हैं।
दूसरी बात यह सामने आई कि डिब्बे जलाने वाले हजार की भीड़ में थें। ऐसा कहा जाता है। लेकिन अगर सच में ऐसा था, तो सिर्फ उन दो डिब्बों पर हमला नहीं होता, क्योंकि पूरी ट्रेन ही कर सेवकों से भरी थी। तो बाकी डिब्बों को भी नुकसान पहुंचाया जाता।
इस रिपोर्ट के बाद यह माना जाता है कि दंगे ऊपर से दिखने में तो समुदायों के बीच का कलह नजर आते हैं, लेकिन अंदर से वह राजनैतिक ही होते हैं। गुजरात के दंगे चर्चा में पाए जाने का कारण है, मारे जाने वाले लोगों की बड़ी संख्या, राजकीय पार्श्वभूमी और उन दंगों से प्रेरित हुई और घटनाएं।

फिर दूसरा सवाल यह है कि ऐसी घटनाएं हर जगह क्यों नहीं होती?
इसका जवाब है लोगों के रहने का तरीका। अहमदाबाद जैसे शहरों में हिंदू व्यक्तियों का इलाका पूरा अलग होता है और मुस्लिम व्यक्तियों का पूरी तरह से अलग। वही लखनऊ में हिंदू और मुसलमान के घर अगल बगल में पाए जाते हैं। जहां अहमदाबाद में अगर हिंदू को मुस्लिम व्यक्ति को अपना घर बेचना हो तो भी शासन से संमती लेनी पड़ती है, वही लखनऊ में ऐसा कुछ नहीं है। यह दर्शाता है कि शासन भी इनको अलग-अलग रखने में कैसी भूमिका निभाता है।
मुंबई के कई सोसाइटी में एक मुसलमान को घर मिलना मुश्किल है। वही मुंबई से करीब मुंब्रा शहर में एक हिंदू को घर मिलना मुश्किल है। एक बार इस तरह से अलगाव तैयार हो गया, तो इन लोगों के मन में जहर घोलना किसी के लिए भी आसान हो जाता है।
गुजरात में ऐसी ही मुसलमानों की अलग बस्ती है जुहापुरा। इस बस्ती में गुजरात के बाकी शहरों के मुस्लिम घर लेना नहीं चाहते। क्योंकि उन्हें पता है ऐसे बस्ती में रहने से अलगाव तैयार हो जाएगा और दंगों में ऐसे इलाके ज्यादा प्रभावित होंगे।
गुजरात दंगों की ही बात करें तो सूरत में इनका प्रभाव बहुत कम देखा गया। क्योंकि सूरत में हिंदू और मुसलमान साथ में रहते हैं। अगर यह दो समुदाय साथ रहे, एक दूसरे को अच्छे से जाने और एक दूसरे की तहजीब का सम्मान करके, किसी और की बातों में आए बिना खुद के विचारों पर अमल करें, तो भारत में दंगों का नामोनिशान मिट जाए।

दंगों में मरने वाले और मारने वाले किसी नेता के बेटे नहीं होते, किसी अमीर की संतानें नहीं होती, वह हम लोग होते हैं जो दिन-रात काम करके अपना पेट भरना चाहते हैं। इन्हें धर्म से ज्यादा पेट की फिक्र रहती है, लेकिन फिर भी दंगे भड़कते हैं क्योंकि भड़काने वाले आप के दिमाग में यह सुनिश्चित कर देते हैं कि, आप की तकलीफों की वजह सामने वाला समुदाय है। उनकी यह राजनीति को पहचाने और भारत की ‘सामुदायिक’ एकता और अखंडता को कायम रखें।

जय हिन्द।



✒ लेखन - अमित
मेल

संदर्भ :
१) SIT Report
२) तहलका मैगजीन रिपोर्ट
३) The Hindu articles
४) Outlook Report
५) नानावटी कमिटी और उमेंश चंद्र कमिटी रिपोर्ट
६) छायाचित्र : टाकबोरू

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